द्वारा: Dr. John Ankerberg / Dr. John Weldon; ©2005
यदि परमेश्वर ने स्वयं को सचमुच मनुष्य पर प्रगट किया है, तो क्या हम जान सकते हैं कि वह प्रकाशन कहाँ पाया जाता है? क्या हम उसे पहचान सकते हैं? दूसरे शब्दों में, क्या हम सचमुच जान सकते हैं कि परमेश्वर ने हमसे क्या कहा है?
किसी भी धर्म को माननेवाले धार्मिक व्यक्ति के लिए और कोई बात अधिक महत्व की नहीं होगी जितनी कि यह। यह एक महत्वपूर्ण विषय है कि “ईश्वरीय प्रकाशन कैसे आकार लेता है”, क्योंकि इसके बिना परमेश्वर के बारे में बहुत ही कम जाना जा सकता है – जैसे कि परमेश्वर कौन है? उसने हमसे क्या कहा है? या कि वह हमसे क्या चाहता है। इस तरह, ईश्वरीय अधिकार का मुद्दा ईश्वरीय प्रकाशन से अटूट रुप से जुड़ा है। दूसरे शब्दों में कहें तो केवल परमेश्वर के प्रकाशन में ही वह सच्ची व अंतर्निहित शक्ति है कि वह आज्ञापालन का आदेश दे सके।
तो, क्या परमेश्वर ने सचमुच कुछ कहा है? यदि ऐसा है, तो उसने कहाँ पर कहा है?
पारंपरिक रुप से प्रोटेस्टेंट यह मानते आये हैं कि परमेश्वर ने केवल पुराने नियम की 39 पुस्तकों, तथा नये नियम की 27 पुस्तकों में बात की है। केवल इन्हीं पुस्तकों के पास ईश्वरीय अधिकार है।
इसके विपरीत रोमन कैथॉलिक मत सिखाता है कि प्रोटेस्टेंट बाइबल के अलावा भी ईश्वरीय अधिकार के पाँच अतिरिक्त स्रोत हैं।
पहला, नये और पुराने नियम के अतिरिक्त पुस्तकें जिन्हें कैथॉलिक ड्यूट्रोकैनौनिकल व प्रोटेस्टेंट अपाक्रिफा कहते हैं। रोमन कैथॉलिक इन्हें सच्चा वचन मानते हैं और इसलिए उन्हें अपनी बाइबल में शामिल करते हैं।[1]
दूसरा, कैथॉलिक मत में यह विश्वास किया जाता है कि ईश्वरीय अधिकार को रोमन कैथॉलिक कलीसिया की अधिकृत परंपरा में पाया जाना है, और उसे भी ‘‘परमेश्वर के वचन’’ की श्रेणी में रखा गया है।[2]
तीसरा, विश्वास और नैतिकता के आधिकारिक मुद्दों पर कुछ कहते समय पोप को भी ईश्वरीय अधिकार दिया जाता है।[3]
चौथा, पोप और ऑर्थोडॉक्स कैथॉलिक परंपरा के साथ बोलते या सिखाते समय रोमन कैथॉलिक बिशपों को भी अमोघ माना जाता है, और इसी कारण, वे ईश्वर द्वारा प्रमाणित माने जाते हैं।[4]
अंत में, बाइबल की आधिकारिक रोमन कैथॉलिक व्याख्या में ईश्वरीय समर्थन व अधिकार समझा जाता है।[5]
संक्षेप में, इन पाँचों स्रोतों को ‘‘रोमन कैथॉलिक परंपरा’’ में सारांशित किया जा सकता है।
प्रोटेस्टेंट मत ईश्वरीय अधिकारों के इन अतिरिक्त स्रोतों को खारिज करता है, यही वह बात है जो दोनो कलीसियाओं के विभाजन को और गहरा करती है। प्रोटेस्टेंट व कैथॉलिक में से कोई भी इस बात से इन्कार नहीं कर सकता। यदि बाइबल का खंडन करनेवाले अन्य स्रोतों को भी ईश्वरीय प्रकाशन समझा जाता है, तो बाइबल को ईश्वरीय अधिकार नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि परमेश्वर स्वयं अपनी बात का खंडन नहीं करता (2 कुरि. 1:17-20; भजनसं. 145:13; गलातियों 3:1; इब्रानियों 13:8) और न झूठ बोलता है (तीतुस 1:2), वह किसी शिक्षा की बाइबल में पुष्टि करके, किसी अन्य प्रकाशित परंपरा में उसका खंडन नहीं कर सकता। इसलिए, प्रोटेस्टेंटों का मानना है कि यदि बाइबल परमेश्वर का सच्चा वचन है (जो कि कैथॉलिक भी मानते हैं), तो उसकी शिक्षाओं का विरोध करनेवाली शिक्षा परमेश्वर की ओर से नहीं हो सकती।
संक्षेप में, यह मुद्दा बहुत विकट है क्योंकि कैथॉलिक परंपरा और बाइबल का प्रकाशन उद्धार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक दूसरे का विरोध करते हैं। अंत में इसके भयंकर व्यक्तिगत परिणाम हो सकते हैं, जिसमें उद्धार के असली अर्थ को लेकर अनिश्चितता हो सकती है या अनजाने में उसे ठुकराया भी जा सकता है।
इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि प्रोटेंस्टेंटों की तरह धर्मनिष्ठ कैथॉलिक भी सच्चे मन से परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करना चाहते हैं; उनमें भी परमेश्वर की प्रसन्नता को जानने की इच्छा होती है ताकि वे अपने जीवन को उसके अनुसार जी सकें; और इसीलिये बाइबल के अधिकार का यह मुद्दा इतना विकट है।
टिप्पणियाँ
1. ↑ रॉबर्ट सी. ब्रॉडरिक, एड., कैथोलिक विश्वकोश, अद्यतन संशोधित (नैशविले: थॉमस नेल्सन प्रकाशक, 1987), 73-74 pp..
2. ↑ Ibid., पृ. 581.
3. ↑ Ibid., पृ. 292.
4. ↑ Ibid.
5. ↑ Ibid., पृ. 581.