द्वारा: Dr. John Ankerberg; ©2000
हमारा आज का विषय बहुत ही रोचक है-परमेश्वर द्वारा अपनो का अनुशासन, इसके पीछे के कारण, और पूरी प्रक्रिया के दौरान निराश होने से कैसे बचें। सभी मसीही रोमियों 8: 28: के इस पद से बहुत अच्छी तरह परिचित होंगे, कि ‘‘और हम जानते हैं कि जो लोग परमेश्वर से प्रेम रखते हैं, उनके लिये सब बातें मिलकर भलाई ही को उत्पन्न करती हैं; अर्थात् उन्हीं के लिये जो उसकी इच्छा के अनुसार बुलाये हुये हैं।’’ इस पद को मसीही दुख के समय इस्तेमाल करते हैं, जैसे कि नौकरी छूट गई हो; जब मुसीबत आन पड़ी हो। ऐसा करने के द्वारा हम कहते हैं, कि ‘‘हाँ, हम विश्वास करते हैं कि सब कुछ परमेश्वर के ही हाथों में हैं, और उसी ने इन बातों को किसी भलाई के लिए हमारे जीवन में होने दिया है।’’
आज हम इन बातों को थोड़ा गहराई से देखेंगे और पता लगायेंगे कि हमारे जीवन में घटनेवाली इन बातों के विषय में परमेश्वर क्या कहता है। शुरुआत हम 2 कुरिन्थियों के पहले अध्याय से करेंगे, जिसमें महान प्रेरित पौलुस, अपने जीवन में आई मुसीबतों के बारे में बताता है। उसने कहा, ‘‘हे भाइयों, हम नहीं चाहते कि तुम हमारे उस क्लेश से अनजान रहो, जो आसिया में हम पर पड़ा, कि ऐसे भारी बोझ से दब गए थे, जो हमारी सामर्थ से बाहर था।’’
चलिए मैं यहाँ पर रुक कर कहना चाहूँगा कि मसीही भी मुसीबत में पड़ते हैं। कुछ लोग कलीसिया में इस तरह की गलत शिक्षा भी देते हैं कि चाहे आप जिन भी मुसीबतों का सामना करें; परमेश्वर आपको उस पर संपूर्ण जय देगा ही, मतलब, यदि आप बीमार हैं तो पूरी तरह चंगे होंगे ही; यदि आप पर आर्थिक गरीबी है, तो आपके पास हमेशा चुकाने के लिए बिल की राशि से अधिक पैसा होगा; यदि आपको वैवाहिक जीवन में कोई समस्या है, तो वह अवश्य सुलझेगी। लेकिन प्रेरित पौलुस का अनुभव ऐसा नहीं था। वह कहता है कि उसे भी आसिया में क्लेश का सामना करना पड़ा था।
पौलुस उन मुसीबतों से इसलिए नहीं गुज़रा था क्योंकि वह प्रार्थना में अधिक समय नहीं लगाता था, या कि वह परमेश्वर से इन मुसीबतों को हटाने के लिए कहना भूल गया था। नहीं, क्योंकि यह पौलुस ही तो था जिसने 1 थिस्सलुनीकियों 5:17 में मसीहियों को निरंतर प्रार्थना में लगे रहने को कहा था, और इफिसियों 6:18 में हर अवसर पर प्रार्थना करने को कहा था। इसलिए, स्वयं पौलुस के अपने जीवन को देखने पर हम यह कह सकते हैं कि ऐसा बिल्कुल संभव है कि कोई मसीही प्रार्थना करे; परमेश्वर से मुसीबतें हटाने को कहे, और परमेश्वर ऐसा न करे। लेकिन उन मुसीबतों का सामना करने की सामथ्र्य व शांति वह अवश्य देने का वायदा करता है।
इसके बाद पौलुस लिखता है, ‘‘जो हमारी सामथ्र्य से बाहर था।’’ दूसरे शब्दों में कहें तो जिन परिस्थितियों का उसने सामना किया था, उन परिस्थितियों ने उसे बुरी तरह निचोड़ कर रख दिया था। उनका सामना करने की सामथ्र्य और योग्यता उसमें नहीं थी।
वह कहता है कि हालात इतने बुरे हो चले थे कि ‘‘यहाँ तक कि हम जीवन से भी हाथ धो बैठे थे।’’ दूसरे शब्दों में, उसे नहीं लगता था कि वह उन सबसे पार जा सकेगा। वह उस बिंदु पर पहुँच गया था, जहाँ उसे लगता था कि वह उन परिस्थितियों से शायद ही पार जा सके।
इसके बाद पौलुस कहता है, कि ‘‘वरन् हमने तो अपने मन में समझ लिया था, कि हम पर मृत्यु की आज्ञा हो चुकी है।’’ इस बात पर ध्यान दें कि वह कहता है कि उसने अपने मन में समझ लिया था उन पर मृत्यु की आज्ञा हो चुकी है, या कि उनकी मृत्यु होनेवाली है। क्या आपको भी ऐसा ही लगता है? क्या आप भी निराशा के इस हद तक पहुँच चुके हैं? क्या आपकी सारी ताकत और सामथ्र्य खत्म हो चुकी है? क्या आपको स्वयं जीवन से ही निराशा हुई है? खैर, पौलुस कहता है कि उसने इन्हीं सब बातों का अनुभव किया था।
लेकिन इसके बाद इस बात पर भी ध्यान दें कि वह इनके विषय क्या कहता है। वह बताता है कि इतनी भारी मुसीबत उस पर किसलिये पड़ी थीं। इसका कारण है: “कि हम अपना भरोसा न रखें, वरन् परमेश्वर का।’’ वे भयंकर अनुभव, जीवन की निराशा, घोर संकट उस पर इसलिए आया कि पौलुस को यह अहसास हो, कि उसके सारे साधन-सहारे खत्म हो चुके हैं-उसकी अपनी सामथ्र्य और ताकत-सब समाप्त हो चुके हैं, और अब उसे पूरी तरह से केवल परमेश्वर पर भरोसा करना होगा। ये संकट इसलिये आयें ताकि पौलुस का स्वयं पर भरोसा करना खत्म हो जाये, और वह यह जान ले कि अपनी सामथ्र्य के द्वारा वह इन संकटों से किसी भी तरह नहीं निकल सकता था। अपने जीवन में घटित होनेवाली हर घटना के लिए हमें हर पल परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए। क्या आप भी इस समय यही सीख रहे हैं?
वचन हमें सिखाता है कि इन विकट परिस्थितियों को हमारे जीवन में परमेश्वर इसलिए आने देता है कि हम आखिरकार अपने साधन-सहारों पर, चीज़ों से निबटने के अपने परिचित तरीकों पर भरोसा करना छोड़ दें, और अपनी पूरी सामथ्र्य व सुरक्षा केवल परमेश्वर में पायें। ध्यान दें कि पौलुस के सबक सीखने के बाद परमेश्वर ने क्या किया।
10वें पद में वह कहता है, ‘‘उसी (परमेश्वर) ने हमें ऐसी बड़ी मृत्यु से बचाया, और बचायेगा; और उससे हमारी यह आशा है, कि वह आगे को भी बचाता रहेगा। और तुम भी मिलकर प्रार्थना के द्वारा हमारी सहायता करोगे।’’
इस तरह पौलुस की गवाही यह थी: विकट परिस्थितियों के मध्य, परमेश्वर ने उन्हें छुटकारा दिया। जिसके परिणामस्वरुप, पौलुस यह कह सकता था कि उसकी आशा और भविष्य की सुरक्षा केवल प्रभु में हैं। इन सबमें जो मुख्य बात पौलुस कहता है वह यह है: परमेश्वर चाहता है कि हम अपनी सामथ्र्य, अपनी ताकत, और अपने भविष्य के लिए केवल परमेश्वर पर भरोसा करें।
बाइबल में मौजूद इब्रानियों की पुस्तक का 12वाँ अध्याय भी इसी तरह की बात कहता हैः ‘‘हे मेरे पुत्र, प्रभु की ताड़ना को हल्की बात न जान, और जब वह तुझे घुड़के तो हियाव न छोड़। क्योंकि प्रभु जिससे प्रेम करता है, उसकी ताड़ना भी करता है; और जिसे पुत्र बना लेता है, उसको कोड़े भी लगाता है। तुम दुख को ताड़ना समझकर सह लोः परमेश्वर तुम्हें पुत्र जान कर तुम्हारे साथ बर्ताव करता है, वह कौन सा पुत्र है, जिसकी ताड़ना पिता नहीं करता? यदि वह ताड़ना जिसके भागी सब होते हैं, तुम्हारी नहीं हुई, तो तुम पुत्र नहीं, पर व्यभिचार की सन्तान ठहरे! फिर जबकि हमारे शारीरिक पिता भी हमारी ताड़ना किया करते थे, तो क्या आत्माओं के पिता के और भी आधीन न रहें जिससे जीवित रहें। वे तो अपनी-अपनी समझ के अनुसार थोड़े दिनों के लिये ताड़ना करते थे, पर यह तो हमारे लाभ के लिये करता है, कि हम भी उसकी पवित्रता के भागी हो जायें। और वर्तमान में हर प्रकार की ताड़ना आनन्द की नहीं, पर शोक की बात दिखाई पड़ती है, तौभी जो उसको सहते-सहते पक्के हो गए हैं, पीछे उन्हें चैन का साथ धर्म का प्रतिफल मिलता है।’’
इसमें कुछ बातें हैं: पहली बात, बाइबल सिखाती है कि परमेश्वर का हर सच्चा बेटा या बेटी को अपने जीवन में परमेश्वर की ताड़ना का अनुभव होगा। अब, ज़रा एक पल के लिए इस पर विचार करें। यदि आप किसी बच्चे के माता या पिता हैं, और आप उन्हें आग की किसी तेज़ लौ की तरफ अपना हाथ बढ़ाते हुए देखें; या अपना हाथ बिजली के सॉकेट में डालते हुए देंखें; या सीढ़ी के इतने पास चले जायें कि उनके गिरने का खतरा पैदा हो जाये; तो ऐसे में आप क्या करेंगे? चूँकि आप उनसे प्रेम करते हैं, इसलिए आप उन्हें इस बात के लिए घुड़की देंगे। आप कहते हैं, ‘‘ऐसा बिल्कुल मत करना, समझे!’’ या कि ऐसा तुमने क्यों किया।
अब, कुछ बच्चे तो एक ही बार में बात मान लेते हैं। उन्हें अपने माता-पिता की बात पर विश्वास होता है। लेकिन कुछ ऐसा नहीं करते, और इसलिए आपको दोबारा से अनुशासित करना पड़ता है, और अपनी बात समझाने के लिए शायद आपको उन पर हाथ भी उठाना पड़े। पहली बार गलती करने पर छोटी सज़ा ठीक है, लेकिन यदि बच्चा बार-बार बात न मान कर अपनी करतूत दोहराता रहे, तो आप भी सज़ा को बढ़ा देते हैं। आपका लक्ष्य उनसे वह खतरनाक आदत छुड़वाना होता है। यह उन्हीं के भले के लिए होता है। साथ ही, यदि प्यार से समझाते रहने से भी जब बच्चा बात नहीं मानता, तो उन्हें वह बात अपनी करतूत का फल भुगत कर ही आती है। वो अपना हाथ आग में डाल कर जला बैठता है; नहीं तो वे सीढि़यों पर जाने से लुढ़क कर चोट लगा बैठते हैं। जब चोट लगती है और दर्द होता है, तब वे समझ जाते हैं कि क्यों उनके माता-पिता उनके भले के लिए ही बोल रहे थे।
यह बात हमें दूसरे बिंदु की ओर ले जाती है। माता-पिता अपने बच्चों को ताड़ना इसलिए नहीं देते क्योंकि वे उन्हें सज़ा देना या हतोत्साहित करना चाहते हैं। बिल्कुल नहीं, बात इसके पलट है। वे अपने बच्चों को सही रास्ते पर इसलिए लाते हैं क्योंकि वे उनसे प्रेम करते हैं।
यही बात परमेश्वर के लिए भी सही है। परमेश्वर हमसे प्रेम रखता है। जब यह मानते हैं कि हम पापी हैं और मसीह को अपना उद्धारकर्ता मानते हैं, तब परमेश्वर हमें अपनी संतान बना लेता है और उसी रीति से हमसे व्यवहार करता है।
बाइबल कहती है, कि ‘‘जितनों ने भी उसे (मसीह को) ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर का पुत्र होने का अधिकार दिया; अर्थात् उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास करते थे।’’ (यूहन्ना 1:12)। बाइबल आगे कहती है, कि ‘‘जिसके पास पुत्र है, उसके पास जीवन है’’ (1 यूह.5:12)। आपने जिस पल यीशु पर अपना विश्वास रखा था, उसी पल परमेश्वर ने आपको जीवन; एक उत्साह से भरा व आत्मिक जीवन दिया था। यही कारण है कि इसे ‘‘अनन्त जीवन’’ कहते हैं। यीशु ने कहा, कि ‘‘मैं तुमसे सच-सच कहता हूँ, कि जो कोई विश्वास करता है, अनन्त जीवन उसी का है’’ (यूह. 6:47)।
यूहन्ना 10:10 में उसने कहा, कि ‘‘मैं इसलिये आया कि वे जीवन पायें; बहुतायत का जीवन।’’
यीशु ने कहा, ‘‘जो कुछ पिता मुझे देता है वह सब मेरे पास आएगा, उसे मैं कभी न निकालूँगा। क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, वरन् अपने भेजनेवाले की इच्छा पूरी करने के लिए स्वर्ग से उतरा हूँ। और मेरे भेजनेवाले की इच्छा यह है कि जो कुछउसने मुझे दिया है, उसमें से मैं कुछ न खोऊँ परन्तु उसे अंतिम दिन फिर जिला उठाऊँ। क्योंकि मेरे पिता की इच्छा यह है, कि जो कोई पुत्र को देखे, और उस पर विश्वास करे, वह अनन्त जीवन पाए; और मैं उसे अंतिम दिन फिर जिला उठाऊँगा’’ (यूह. 6:37-40)।
इस तरह, परमेश्वर ने अपने अनुग्रह के कारण, अनंत जीवन का वरदान और पापों की क्षमा दी, जिसके लिए उसने क्रूस पर अपने बेटे को मरने भेजा और पापों की वह सज़ा, जिसके हम योग्य थे, उस सज़ा को भोगने भेजा। हमारे विश्वास करते ही परमेश्वर हमें अपना बना लेता है और हम उसके साथ एक प्रेममय संबंध में प्रवेश कर जाते हैं। वह हमारा स्वर्गीक पिता है। और हम उसके साथ चलने लगते हैं, और उस पर भरोसा करते हैं कि वह हमे जीवन जीने का तरीका सिखायेगा – जो कि हमारे अपने भले के लिए है; हमारे अनन्त भले के लिए है।
यह बात हमें तीसरे बिंदु पर ले आई है। यदि हम परमेश्वर की अगुवाई के प्रति संवेदनशील रहें और उसकी आज्ञा का पालन करें, तो वह बहुत कम ताड़ना देता है।
परमेश्वर के वचन का अध्ययन करते समय, हम पवित्र आत्मा को अपना मार्गदर्शन करने देते हैं। पवित्र आत्मा हमें परमेश्वर के साथ संबंध बनाये रखने की आवश्यक सामथ्र्य देता है। लेकिन हम में से कुछ लोग अडि़यल बच्चों की तरह होते हैं, जो अपनी माता-पिता का कहना मानने से इंकार कर देते हैं। प्रभु के द्वारा वचन तथा कलीसिया की शिक्षा के माध्यम से मार्गदर्शन मिलने के बाद भी, कई बार मसीही सीखी गई बातों को अपने जीवन में लागू करने से इंकार करते हैं। हम सभी में कुछ आदतें जड़ों तक जमी होती हैं जो हमारे साथ बहुत समय से लगी हैं। अपनी ही स्वीकृति और संतुष्टि के लिए हम चीज़ों को अपनी तरह से करते हैं। रोमियों की पुस्तक के 7वें तथा 8वें अध्याय के अनुसार, ये सब शरीर के पैटर्न हैं; जीवन को जीने के सांसारिक, शारीरिक तरीके हैं न कि वे पैटर्न जो परमेश्वर चाहता है। इन बुरी आदतों को छुड़वाने के लिए परमेश्वर क्या करता है? परमेश्वर हमारे जीवन में कार्य करने लगता है, ताकि हम उसे सचमुच में जानें और उसके प्रेम का अनुभव करें। वह हमारे जीवन में कार्य करने लगता है, ताकि हम यह जानें कि हमारी सारी ज़रुरतों को पूरी करने का सच्चा स्रोत केवल वही है, और होना भी चाहिए।
संभव है कि आपने कभी इस बात का अहसास न किया हो कि एक मसीही होने के नाते परमेश्वर आपसे क्या चाहता है। सबसे पहले, इफिसियों 3:16-19 में प्रेरित पौलुस कहता है कि परमेश्वर चाहता है कि आप उसके प्रेम में गहराई से बने रहें, ताकि विश्वास के द्वारा मसीह आपके मन में पूरी स्वतंत्रता के साथ वास करे, अर्थात्, ताकि मसीह आपके मन में ऐसे रहे जैसे वह स्वर्ग में रहता है।
दूसरी बात, पौलुस कहता है, कि ‘‘मैं प्रार्थना करता हूँ…..कि वह अपनी महिमा के धन के अनुसार तुम्हें यह दान दे, कि तुम उसके आत्मा से अपने भीतरी मनुष्यत्व में सामर्थ पाकर बलवन्त होते जाओ। और विश्वास के द्वारा मसीह तुम्हारे हदय में बसे कि तुम प्रेम में जड़ पकड़ कर और नेव डाल कर, सब पवित्र लोगों के साथ भली भांति समझने की शक्ति पाओः कि उसकी चौड़ाई, और लंबाई, और ऊँचाई, और गहराई कितनी है। और मसीह के उस प्रेम को जान सको जो ज्ञान से परे है………..।’’ इस तरह, परमेश्वर चाहता है कि आप उसके प्रेम में जड़ पकड़े और नीव डाल कर बने रहें, और मसीह को अपने जीवन की अगुवाई करने देने के लिए उससे शक्ति पाओ।
तीसरी बात, रोमियों 8:29 में परमेश्वर का वचन हमें यह भी बताता है कि ‘‘क्योंकि जिन्हें उसने पहले से जान लिया है उन्हें पहले से ठहराया भी है कि उसके पुत्र के स्वरुप में हों।’’
परमेश्वर का लक्ष्य हमें उसके पुत्र के स्वरुप में ढालना है। इसका क्या अर्थ है? हम किस रीति से मसीह के स्वरुप में ढल सकते हैं? बहुत से लोग सोचते हैं कि यीशु मसीह अब तक का सबसे आज़ाद व्यक्ति था। सारी शक्तियाँ और सारा ज्ञान उसके पास था, और किसी भी बात के लिए उसे किसी पर निर्भर रहने की ज़रुरत नहीं थी। हाँ, वह परमेश्वर का पुत्र तो था, लेकिन सच्चाई यह है – बाइबल के अनुसार – कि उसने अपने जीवन के द्वारा हमें सिखाया कि स्वर्गीक पिता पर निर्भर होकर जीवन कैसे जीते हैं।
यूहन्ना 6:38 में उसने कहा, ‘‘क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, वरन् अपने भेजनेवाले की इच्छा पूरी करने के लिए स्वर्ग से उतरा हूँ।’’
उसने कहा, ‘‘कि उपदेश मेरा नहीं, परन्तु मेरे भेजनेवाले का है’’ (यूह. 7:16)।
यूहन्ना 8:28 में उसने कहा, कि मैं ‘‘…अपने आप से कुछ नहीं करता, परन्तु जैसे पिता ने मुझे सिखाया, वैसे ही ये बातें कहता हूँ। और मेरा भेजनेवाला मेरे साथ है; उस ने मुझे अकेला नहीं छोड़ा; क्योंकि मैं सर्वदा वही काम करता हूं, जिस से वह प्रसन्न होता है।’’
आगे, यूहन्ना 12:49 में उसने कहा, ‘‘क्योंकि मैंने अपनी ओर से बातें नहीं की, परन्तु पिता जिसने मुझे भेजा है उसी ने मुझे आज्ञा दी है, कि क्या-क्या कहूँ और क्या-क्या बोलूँ।…..इसलिए मैं जो बोलता हूँ, वह पिता ने मुझसे कहा है वैसा ही बोलता हूँ।’’
अंत में, यूहन्ना 14:10 में यीशु ने कहा, ‘‘पिता मुझ में रहकर अपने काम करता है।’’ इस तरह, धरती पर अपने जीवन, अपने कार्य, और जो कुछ भी उसने सिखाया, उन सारी बातों के लिए यीशु ने अपना जीवन पिता पर आश्रित हो कर बिताया। यहाँ तक कि जो भी आश्चर्यकर्म यीशु ने किये थे, और मनुष्यजाति के पापों के लिए क्रूस पर अपने प्राण न्यौछावर करना भी पिता ही की इच्छा के अंश थे जिसका पालन यीशु ने किया था। इसलिए, जब वचन कहता है कि हमारे लिए परमेश्वर की इच्छा है कि हम उसके पुत्र के स्वरुप में ढलें, तब वह यह सिखाता है कि हरेक मसीही को भी परमेश्वर पर आश्रित होकर अपना जीवन ऐसे जीना सीखना चाहिए, जैसे यीशु ने किया था।
यीशु के समान हमें भी पिता को हमारा मार्गदर्शन व निर्देशन करने देना चाहिए; हमारी सारी ज़रुरतों का स्रोत होने देना चाहिए। हमारी सुरक्षा पिता परमेश्वर की ओर से आनी चाहिए; हमें उसकी ओर देखना चाहिए कि वह हमें अपने जीवन के लक्ष्य दे; अपनी नौकरियों; अपने जीवन-साथी, अपने बच्चो के लालन-पालन की रीति – इन सभी बातों के लिए हमें पिता पर निर्भर होना चाहिए तथा उसकी इच्छा का पालन करना चाहिए। द्रोह करने पर हम पाप करते हैं। जब हम अपने जीवन के लिए पिता की इच्छा को दरकिनार करते हैं, तो वह अपने बच्चों की तरह हमें प्रेममय रीति से अनुशासित करता है। वह ऐसा हमारे भले के लिए करता है, ताकि हम सही रास्ते पर लौट आयें।
जैसा कि लेखक बिल गिल्हेम ने अपनी पुस्तक ‘‘लाइफ टाईम गारंटी’’ में लिखा है, ‘‘जब हम द्रोह करते हैं, या केवल अपने अज्ञान के चलते रास्ते से भटक जाते हैं, तब परमेश्वर, रोमियों 8:28 में जो ‘‘सब बातें’’ हैं, उन बातों को थोड़ा-बहुत हमारे जीवन में होने देता है। ये परिस्थितियाँ हमारा ध्यान खींच कर, हमें वापिस परमेश्वर पर पूरी तरह से भरोसा रखने की अवस्था में ले आती हैं। प्रेरित पौलुस को भी यह बात सीखनी पड़ी थी। यीशु के चेलों को भी यह बात सीखनी पड़ी थी; और इब्रानियों के 12वें अध्याय के अनुसार, हर युग के मसीहियों को इसी रीति से ताड़ना मिली है। जिसका अर्थ है कि आप और मैं भी परमेश्वर की ताड़ना के पात्र होंगे।
हमारी अनंत सुरक्षा खतरे में नहीं है। नहीं। यह परमेश्वर के साथ हमारा संबंध है। यह परमेश्वर के बेटे के स्वरुप के अनुसार ढलने की बात है। यदि आपके और मेरे मरने से पहले, 10 के स्तर में, हम यीशु के स्वरुप में केवल 2 के स्तर तक ही पहुँचे हैं और परमेश्वर चाहता है कि हम कम से कम 6 तक तो पहुँचें, तो ऐसे में वह हमारे जीवन में छोटी-मोटी बातें होने दे सकता है। जिसके परिणामस्वरुप, हम अपने पुराने तरीके छोड़ देंगे, और पूरी तरह से पिता की इच्छा के समक्ष समर्पण कर देंगे। वह चाहता है कि हमारी सारी ज़रुरतों का केवल वही परम स्रोत हो।
चलिए देखें कि हम यह बात प्रेरित पतरस के जीवन में भी होता देख पाते हैं। वचन में हम जो कुछ भी पतरस के बारे में पढ़ते हैं, उससे पता चलता है कि पतरस को अपनी सामथ्र्य पर बहुत विश्वास था। व्यक्तिगत जीवन में वह कभी हार न माननेवालों में से था। यदि उसे लगता कि कोई दूसरा व्यक्ति उसके कार्य को नहीं कर सकेगा, तो वह उस कार्य को करने के लिए खुद पर भरोसा करता था; वह कभी हार नहीं मानता था; वह हमेशा कठिनाई से निकल आता था। हारने की बजाय वह मरना पसंद करता।
यह पतरस ही था जिसने लूका 22:33 में प्रभु से कहा था, कि ‘‘मैं तेरे साथ बंदीगृह जाने, वरन् मरने को भी तैयार हूँ।’’ यह बात पतरस ने अपनी सामथ्र्य के भरोसे कही थी। उसे अपनी सामथ्र्य पर भरोसा था। उसे अपनी योग्यता पर विश्वास था। समस्या यह थी कि उसका विश्वास सही जगह पर नहीं था – उसे खुद पर नहीं, परमेश्वर पर विश्वास करना चाहिए था।
यहाँ पर यीशु का दिया उत्तर बहुत रोचक है। लूका 22:34 में यीशु ने उससे कहा, कि ‘‘हे पतरस, मैं तुझसे कहता हूँ कि आज मुर्ग़ बाँग न देगा जब तक तू तीन बार मेरा इन्कार न कर लेगा कि तू मुझे नहीं जानता।’’ अब, क्या ये सब कहते समय पतरस यीशु के सामने केवल झूठमूठ की बातें बघार रहा था कि ज़रुरत पड़ने पर वह यीशु के लिए जेल जाने या मरने तक को तैयार था? नहीं।
यदि आप यूहन्ना के 18वें अध्याय में देखें, तो आप देखेंगे कि पतरस यह बात पूरी निष्ठा के साथ कह रहा था। इस लेखे में हम यहूदा का यीशु को धोखा देने के लिए आना देखते हैं। यह पद कहता है, कि ‘‘तब यहूदा, सैनिकों के एक दल को और प्रधान याजकों और फरीसियों की ओर से प्यादों को लेकर, दीपकों और मशालों और हथियारों को लिये हुए वहाँ आया।’’
प्रश्न: एक दल में कितने सैनिक थे? लूका 22:47 कहता है, ‘‘एक भीड़ आई, और उन बारहों में से एक जिसका नाम यहूदा था, उनके आगे-आगे आ रहा था।’’
मत्ती की पुस्तक बताती है, कि ‘‘यहूदा जो बारहों में से एक था आया, और उसके साथ प्रधान याजकों और लोगों के पुरयनियों की आरे से बड़ी भड़, तलवारें और लाठियाँ लिये हुए आई।’’ कुछ विद्वानों का मत है कि सैनिकों के एक दल में 600 सैनिक थे। तो ज़रा यीशु को पकड़ने के लिए 600 हथियारबंद सैनिकों के आने की कल्पना करें।
ऐसे में पतरस ने क्या किया? बाइबल कहती है, कि ‘‘तब शमौन पतरस ने तलवार, जो उसके पास थी, खींची और महायाजक के दास पर चलाकर उसका दाहिना कान उड़ा दिया।’’ ज़रा इस बात पर विचार करें। पतरस आगे बढ़कर 600 सैनिकों से भिड़ने को तैयार हो जाता है। 1 व्यक्ति के विरुद्ध 600 लोगों का होना सही बात नहीं है। लेकिन इससे मुझे इस बात का तो पता चल जाता है कि पतरस ने जब यीशु को कहा था कि वह उसके लिए मरने को भी तैयार है, तो वह यह बात सच्चे मन से कह रहा था।
लेकिन यीशु ने उस दास के कान चंगे कर दिये और उससे तलवार रखने को कहा। इसके बाद यीशु को पकड़ लिया गया और वे उसे ले गये।
बाइबल बताती है कि पतरस ने थोड़ी दूर से यीशु और सैनिकों का पीछा किया था। वह बहुत भ्रमित और चिंतित था; उसे नहीं पता था कि क्या होनेवाला था। पतरस के बारे में अगली बात जो हमें पता चलती है कि वह उस आँगन में खड़ा आग ताप रहा थ जहाँ यीशु पर मुकदमा चलाया जा रहा था।
एक छोटी सी दासिन ने उसे देखा और कहा, ‘‘क्या तू भी यीशु के साथियों में से एक नहीं था?’’ और पतरस ने इन्कार कर दिया। उसने कहा, ‘‘हे स्त्री, मैं उसे नहीं जानता।’’
लगभग एक घंटे बाद दूसरी लड़की उसके पास आई और बोली, ‘‘तू भी तो उस गलीली के साथ था।’’ पतरस ने कहा, ‘‘मैं उस मनुष्य को नहीं जानता।’’
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह स्वयं को धिक्कारने और शपथ खाने लगा, कि ‘‘मैं इस मनुष्य को नहीं जानता।’’
क्या यह वही आदमी था जो कुछ देर पहले 600 सैनिकों से भिड़ने तक को तैयार था? बिल्कुल, यह वही था। लेकिन उन दो लड़कियों के आगे पतरस का सारा हियाव काफूर हो गया। हर स्थिति में डटे रहने की उसकी सामथ्र्य जवाब दे चुकी थी। वह बहुत ही शर्मनाक तरीके से कायर ठहरा था। दो लड़कियों ने उसे हरा दिया था; और जैसे ही उसने यीशु का इन्कार किया, मुर्गे बाँग देने लगा, और पतरस को वे बातें याद आईं जो यीशु ने उससे कही थी। घोर निराशा के साथ उसे वह घोषणा याद आई जो उसने यीशु के आगे की थी, कि ‘‘यदि सब तेरे विषय में ठोकर खाएँ तो खाएँ, परन्तु मैं कभी भी ठोकर न खाऊँगा।’’ अब क्या हुआ था?
यीशु ने पतरस से कहा था, ‘‘शमौन, हे शमौन! देख, शैतान ने तुम लोगों (बहुवचन – अन्य चेलों को भी शामिल किया गया है) को माँग लिया है कि गेहूँ के समान फटके, परन्तु मैंने तेरे (एकवचन) लिये विनती की कि तरेा विश्वास जाता न रहे; और तू फिरे, तो अपने भाइयों को स्थिर करना।’’
ऐसा प्रतीत होता है कि शैतान ने परमेश्वर से पतरस की परीक्षा लेने की अनुमति ली थी। प्रकाशितवाक्य 12:10 कहता है, ‘‘हमारे भाइयों पर दोषलगानेवाला, जो रात दिन हमारे परमेश्वर के सामने उन पर दोष लगाया करता था…।’’
अय्यूब 1:9 में शैतान ने परमेश्वर के सामने धर्मी और निष्कलंक ठहरे, अय्यूब पर दोष लगाया। जकर्याह 3:1 में शैतान ने परमेश्वर के आगे महायाजक यहोशू पर दोष लगाया था।
ध्यान दें कि दोनो ही मामलों में परमेश्वर ही प्रभारी था। हमारी परीक्षा लेने से पहले शैतान को परमेश्वर से अनुमति लेनी होती है। परमेश्वर जानता था कि यीशु के पीछे चलने के लिए पतरस अपनी सामथ्र्य, अपने आत्मविश्वास, और अपनी योग्यताओं पर भरोसा करता था। परमेश्वर ने उसके साहस को निकाला और उसे एक ऐसी परिस्थिति में डाला कि चीज़ों पर अपना काबू रखने की योग्यता उसमें न रही, और वह कायर की तरह बर्ताव करने लेगा। पतरस को लगता था कि वह परिपक्व हो गया है, और हर स्थिति से निबटने के लिए वह अपनी सामथ्र्य और योग्यता पर बहुत भरोसा करता था। उसे विश्वास था कि यदि उसने परमेश्वर से किसी बात का वायदा किया है, तो वह उसे अपनी सामथ्र्य में पूरा भी कर सकता था। दूसरे शब्दों में, उसमें परमेश्वर को प्रभावित व आकर्षित करने जितनी निष्ठा थी। उसमें आत्मविश्वास था कि वह अपने बलबूते पर हर परीक्षा को पार कर सकता था। उसके मन में ये विचार बहुत समय से थे। लेकिन अब पतरस टूट चुका था। यीशु का भरोसा तोड़ने और तीन बार उसका इन्कार करने के बाद, मुर्गे ने बाँग दी, और उसे यीशु की कही बातें याद आईं। उसे अब बातें समझ में आ गई; वह गया और जाकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।
पूरी तरह से टूट जाने के इस अनुभव पर पतरस ने बाद में उचित प्रतिक्रिया की। प्रभु ने उसे क्षमा किया; उसकी कायरता को दूर किया; और उसे उसका हियाव वापिस लौटा दिया। लेकिन उसने कहा, ‘‘अब तुम केवल मुझमें, और मेरी सामथ्र्य पर भरोसा रखोगे। मेरे पवित्र आत्मा का तुझमें होकर कार्य करना ही तेरा हियाव होगा। यह प्रेममय और कोमल होगा; न कि निर्लज्ज या खुद की सेवा करनेवाला। लोग तुझमें मसीह को देखेंगे, और तुम मेरे नाम के लिए महिमा व आदर लाओगे।’’
क्या आप के भी सभी सहारे छूट चुके हैं? क्या अपनी ज़रुरतों के लिये आप केवल परमेश्वर की शक्ति, उसकी सामथ्र्य पर भरोसा रखते हैं? जब बातें अपने तक सीमित रखते हैं; जब हम चीज़ें अपनी रीति से करते हैं; तब हमारा स्वर्गीक पिता कहता है कि वह हमें अनुशासित करेगा, और हमें एक ऐसे बिंदु पर ले आयेगा जहाँ हमें उसकी ज़रुरत महसूस होगी। वह हमें स्वयं अपनी ढीठाई, और अपने द्रोही स्वभाव द्वारा प्रभावित होने दे सकता है, या कि शैतान को भी हमारे जीवन के किसी पक्ष को परखने की अनुमति दे सकता है। लेकिन परमेश्वर सदा नियंत्रण में रहता है, और हमेशा हमें प्रेम के साथ ताड़ना देता है। वह हम सबके साथ व्यक्तिगत रुप से व्यवहार करता है।
इब्रानियों की पुस्तक कहती है कि जब हम परमेश्वर की ताड़ना का अनुभव करते हैं, तब हमें उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए; हमें निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि हम जानते हैं कि वह केवल उन्हीं को ताड़ना देता है जिससे वह प्रेम करता है। हमें परमेश्वर के आधीन रहना है, अपना सबक सीख कर आगे बढ़ना है। यह भला है। बाइबल कहती है कि यदि हम ऐसा करते हैं, तो परमेश्वर की ताड़ना को सहते-सहते पक्के हो गए हैं, पीछे उन्हें चैन का साथ धर्म का प्रतिफल मिलता है।